मेरा नाम मैथिलि है, और मैं बिहार के एक छोटे से गाँव में रहती हूँ। उम्र मेरी 42 साल की है, मगर बदन मेरा ऐसा भरा-पूरा है कि हर मर्द की नजर ठहर जाए। चौड़ा सीना, भारी चूतड़, और गोरे-गोरे स्तन जो ब्लाउज़ में भी छुपते नहीं। पति हैं, बच्चे हैं, घर-परिवार सबकुछ है। पति से मैं खुश हूँ, और कभी किसी पराए मर्द की तरफ़ नजर नहीं उठाई। सच कहूँ तो ऐसा खयाल भी मन में कभी नहीं आया कि किसी गैर के साथ चक्कर चल सकता है। मगर किस्मत में जो लिखा होता है, वो तो होना ही है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।
बच्चे बड़े हो गए थे। पति ने धंधे को बढ़ाने के लिए शहर में शिफ्ट कर लिया। काम अच्छा चलने लगा। बेटी को भी पढ़ाई के लिए शहर में ही कॉलेज में दाखिला दिलवाया। हम सब शहर में सेटल हो गए। मगर कुछ महीनों बाद गाँव से खबर आई कि पिताजी की तबीयत खराब है। हम गाँव गए, और पिताजी की देखभाल के लिए पति ने मुझे गाँव में ही रुकने को कहा। शहर की चमक-दमक छोड़कर गाँव में रहना भला किसे पसंद आएगा, मगर परिवार के लिए मुझे रहना पड़ा। पति हफ्ते-दस दिन में गाँव का चक्कर लगा लेते थे। मैंने जी-जान से पिताजी की सेवा की, सोच थी कि जितनी जल्दी वो ठीक होंगे, उतनी जल्दी मैं शहर वापस जा सकूँगी।
मगर इंसान हूँ ना, जिस्म की आग तो बुझानी पड़ती है। दिन तो काम-धंधे में कट जाता, मगर रातें जान लेती थीं। अकेलेपन में क्या करती? जब मन बेकाबू होता, तो उंगली से चूत को सहलाती। कभी गाजर, कभी मूली का सहारा लेती। मगर मर्द का स्पर्श तो मर्द का ही होता है ना। लंड का तो विकल्प मिल जाता, मगर मर्द के गर्म चुंबन, सख्त हाथों से स्तनों को मसलने का मज़ा, वो कहाँ से लाती? पति से कई बार कहा कि मुझे शहर ले चलो, मगर हर बार कोई ना कोई बहाना। पिताजी की हालत सुधर रही थी, मगर मेरी हालत बिगड़ती जा रही थी।
पड़ोस में काकी का बेटा था, कोई 24-25 साल का, नाम था रवि। वो अक्सर हमारे घर आता, छोटे-मोटे काम करवा देता। चोरी-छुपे मुझे ताड़ता रहता। उसकी नजरों से साफ पता चलता था कि वो मेरे भरे हुए बदन को निहार रहा है। मैं समझती थी कि वो क्या चाहता है, मगर मैंने कभी उसे भाव नहीं दिया। वो मेरे यौवन की तारीफ़ करता, मेरी साड़ी के पल्लू से झाँकते स्तनों को घूरता, मगर मैं अनजान बनकर टाल देती।
ऐसे ही ज़िंदगी चल रही थी। एक दिन शाम को चाय का गिलास लेकर मैं घर की छत पर गई। छत पर एक छोटा सा चौबारा है, मैं वहाँ चली गई। समय होगा कोई साढ़े पाँच बजे का। मैं खिड़की के पास खड़ी थी, बेखयाल सी। पीछे जीतेंद्र भाई साहब का घर था। वो कोई 48 साल के होंगे, साँवले, मगर बदन ऐसा बलिष्ठ कि देखते ही बनता था। उनकी बीवी गुज़र चुकी थी, दोनों बेटे बाहर काम करते थे। वो अकेले रहते थे, कभी-कभार हमारे घर आते, पिताजी से बातें करते।
मैं खिड़की से बाहर देख रही थी। जीतेंद्र जी शायद कहीं से लौटे थे। उन्होंने अपने कपड़े उतारे और बाथरूम में घुस गए। उनका बाथरूम मेरी खिड़की के ठीक नीचे था, गाँव के बाथरूम जैसा, बिना छत का। जब उन्होंने कपड़े उतारे, तो मैंने देखा – चौड़ा सीना, मज़बूत कंधे, गोल-मटोल जाँघें। मगर जो चीज़ मेरी नजरों में खटकी, वो था उनका लंड। काला, मोटा, और दोनों जाँघों के बीच लटकता हुआ। उसे देखते ही मेरे बदन में झुरझुरी सी दौड़ गई। साँसें तेज़ हो गईं, चूत में गीलापन महसूस होने लगा।
मैं खट से खिड़की से हट गई। “हाय राम, ये मैं क्या कर रही हूँ? किसी को नहाते देखना गलत है!” मैं बेड पर बैठकर चाय पीने लगी, मगर चाय बेस्वाद लग रही थी। मन में उथल-पुथल मची थी।। फिर ना जाने क्या हुआ, मैं दोबारा खिड़की के पास गई। जीतेंद्र जी नहा चुके थे, अब तौलिया से बदन पोंछ रहे थे।। मैंने देखा, वो अपना लंड पोंछ रहे हैं।। मेरे मन में खयाल आया, “काश मैं वहाँ होती, ये तौलिया मेरे हाथ में होता, और मैं उनके लंड को सहलाती।” वो कपड़े पहनकर चले गए, मगर मेरे दिल में आग सी लग गई।
उस रात मैंने खीरे को जीतेंद्र जी का लंड मानकर अपनी चूत की प्यास बुझाई। मगर मन की आग तो और भड़क गई। इसके बाद तो मेरी आदत हो गई। हर शाम चाय लेकर मैं चौबारे में चली जाती। पता था कि जीतेंद्र जी काम से लौटकर नहाने आएँगे।। वो नहाते, मैं ऊपर से देखती। उनका मज़ारा, काला लंड देखकर मेरी चूत गीली हो जाती। एक दिन तो हद हो गई। जीतेंद्र जी नहाने से पहले मुट्ठ मार रहे थे। मैं ऊपर खड़ी उनकी हरकतें देख रही थी।।। मेरी हालत बेकाबू थी।। मैंने साड़ी ऊँची, एक हाथ चूत में डालकर सहलाने लगी, दूसरें। हाथ से ब्लाउज़ ऊपर करके स्तन बाहर निकाले। वो नीचे मुट्ठ मार रहे थे, और मैं ऊपर उनकी सोचकर चूत रगड़ रही थी।।
जब उनका वीर्य निकला, तो लंड से पिचकारी सी छूटी, दीवार पर गिरी। मैंने सोचा, “काश ये मेरे मूँह में होता, मेरे स्तनों पर गिरता।” मैं बिस्तर पर लेट गई, साड़ी कमर तक ऊँची, दोनों टाँगें फैलाकर। उंगली चूत में अंदर-बाहर करने लगी। मुँह से बस यही निकल रहा था, “जीतेंद्र जी, चोदो मुझे… चोद डालो।” कुछ देर में मैं भी झड़ गई। चूत से पानी निकला, चादर पर गीला दाग बन गया। कितनी देर मैं वैसे ही नंगी लेटी रही।
अब तो जीतेंद्र जी मेरे दिमाग में बस गए थे। मैं उनसे चुदने को तड़प रही थी।। जब पति गाँव आते, मैं उनके साथ खुलकर चुदाई करती। रातभर नंगे सोते, दो-तीन बार चुदाई होती। मुझे लंड चूसना पसंद नहीं, मगर पति को गर्म करने के लिए थोड़ा-बहुत चूस लेती। वो कहते, “मैथिलि, तेरी चूत तो चोद ली, अब गाँड मारने का मन है।” मैं तेल लाकर उनके लंड और अपनी गुदा पर लगाती। वो मुझे उल्टा लिटाकर गाँड में लंड डालते। थोड़ा दर्द होता, मगर उनके मज़े के लिए सब मंज़ूर था। मगर ना जाने क्यों, चुदाई के वक्त भी जीतेंद्र जी ही मेरे खयालों में रहते। मैं पति में भी उन्हें ढूँढती।
एक दिन शाम को मैं चौबारे में थी। जीतेंद्र जी नहा रहे थे। नहाने के बाद वो अपने लंड से खेलने लगे। खेलते-खेलते लंड तन गया। फिर वो मुट्ठ मारने लगे। मैं भी गर्म हो गई। मैंने कमरे का दरवाज़ा बंद किया, साड़ी उतारी, ब्लाउज़ और ब्रा ऊपर करके स्तन बाहर निकाले। पूरी नंगी होकर खिड़की पर खड़ी थी। जब उनका वीर्य निकला, तो आनंद में उन्होंने सिर ऊपर उठाया और मुझे खिड़की में देख लिया। मैं झट से हट गई, मगर वो मुझे देख चुके थे। शर्मिंदगी हुई, मगर अब क्या हो सकता था।
अगले दिन सोचा कि नहीं जाऊँगी, मगर पाँच बजे फिर चाय लेकर खिड़की पर थी। जीतेंद्र जी आए, मुझे देखकर हाथ हिलाया। मैंने सिर झुकाकर नमस्ते की। उन्होंने कपड़े उतारे, रेज़र लिया और अपनी झाँट साफ करने लगे। पहले लंड के आसपास, फिर अंडों के। फिर लंड हिलाकर तनाया। तना हुआ लंड पकड़कर नीचे बैठ गए और ऊपर मेरी तरफ देखने लगे। मैं भी बेशर्म बनकर उन्हें ताक रही थी। उन्होंने लंड पकड़कर इशारा किया, “ये चाहिए?” मैंने हाँ में सिर हिलाया। उन्होंने स्माइल की और फ्लाइंग किस फेंकी। फिर मुट्ठ मारी, वीर्य की एक बूँद उंगली पर लेकर मेरी तरफ उछाली। मैं तो बस उनकी इस अदा पर पागल हो गई।
इसके बाद जीतेंद्र जी अक्सर हमारे घर आने लगे। पिताजी से बातें करते, मैं चाय देने जाती। हम सिर्फ़ नज़रों से बात करते। उनकी नज़रें मेरे चेहरे, होंठों, स्तनों, और चूतड़ों पर घूमतीं। मैं उनकी नज़रों को अपने बदन पर महसूस करती, और आँखों ही आँखों में शुक्रिया अदा करती।
एक दिन अगस्त की शाम थी। हल्की बूँदाबाँदी हो रही थी। मैं चाय बना रही थी। पिताजी ने आवाज़ दी। उनके पास गई तो जीतेंद्र जी बैठे थे। मैंने मुस्कुराकर नमस्ते की। पिताजी बोले, “बहू, जीतेंद्र आया है, एक कप चाय और बना दे।” मैंने “जी पिताजी” कहा और जीतेंद्र जी को स्माइल देकर रसोई में आई। मन उतावला था। रसोई में आलू की बोरी थी। मैंने साड़ी उठाई, बोरी पर बैठ गई। एक आलू लेकर चूत पर रगड़ा और बोली, “जीतेंद्र जी, अब आप नीचे आओ, मैं ऊपर बैठकर खुद चुदाई करूँगी।” आँखें बंद करके मैं उनकी कल्पना में खो गई।
तभी होश आया। मैंने चाय के साथ पकौड़े बनाए और दिए। बूँदाबाँदी अब तेज़ बारिश बन गई थी। पिताजी ने जीतेंद्र जी को खाने की दावत दे दी। मैं खाना बनाने लगी। ना जाने क्या सूझा, मैं स्टोर में गई और पीछे वाले कमरे में गद्दा बिछा दिया। बारिश और तेज़ हो रही थी। खाना खाकर जीतेंद्र जी पिताजी के कमरे में लेट गए।
मैं अपने कमरे में थी, मगर नींद गायब थी। घड़ी 12 बज चुकी थी। पहले सोचा कि उंगली से चूत को शांत कर लूँ, मगर मन बोला, “आज रात… शायद आज रात।” दिल की धड़कन तेज़ हो गई। जब नींद नहीं आई, तो पेशाब के बहाने बाहर निकली। सामने जीतेंद्र जी खड़े थे। उन्होंने मुझे बाहों में भरा और धकेलकर कमरे में ले गए।
“ओह मैथिलि, कब से इस पल का इंतज़ार था। कितनी देर से तेरे दरवाज़े के बाहर खड़ा हूँ। अब सब्र नहीं होता, जान।” कहकर उन्होंने मेरे होंठ चूम लिए। मैं सकपकाई, “जीतेंद्र भाई साहब, ये क्या कर रहे हो? पिताजी जाग जाएँगे!” मगर वो तो मेरे होंठों, गालों, गले को चूमने में मस्त। मैं नहीं चाहती थी कि आवाज़ पिताजी तक जाए। मैं उन्हें स्टोर के पीछे वाले कमरे में ले गई। दरवाज़ा बंद करके मोमबत्ती जलाई, क्योंकि लाइट नहीं थी।
मोमबत्ती की रोशनी में उन्होंने मुझे फिर से बाहों में भरा। मैं भी उनसे लिपट गई। हमने एक-दूसरे के होंठ चूसे। कभी मैं उनके ऊपरी होंठ को, कभी वो मेरे निचले होंठ को। जीभ एक-दूसरे के मुँह में घूमने लगी। मैंने उनके चौड़े कंधों पर हाथ रखे, वो मेरी पीठ और चूतड़ सहलाने लगे। उनकी उंगलियाँ मेरे चूतड़ों को दबा रही थीं, जैसे वो मेरे पूरे बदन को नाप रहे हों।
इसी बीच उन्होंने मेरी साड़ी खोल दी। अब मैं सिर्फ़ चोली और पेटीकोट में थी। उन्होंने मेरे दोनों स्तनों को हाथों में पकड़ा और ज़ोर-ज़ोर से मसला। मेरी चूत गीली हो चुकी थी, स्तन कड़े हो गए थे। फिर उन्होंने मुझे अलग किया और अपने कपड़े उतारने लगे। मैं गद्दे पर लेट गई। मोमबत्ती की रोशनी में उनका काला, मोटा लंड दिखा, जो अभी पूरी तरह तना नहीं था। उसके पीछे उनके अंडे झूल रहे थे, जैसे दो पके चीकू।
वो पूरी तरह नंगे होकर मेरे पास आए। मैंने खुद पेटीकोट कमर तक उठाया, टाँगें फैलाईं और चूत को उनके सामने खोल दिया। उन्होंने मेरी गीली चूत को देखा, फिर झुककर उसका एक लंबा चुंबन लिया। चूत के बाद मेरी जाँघों, कमर, बगल, हर जगह उनके होंठों ने छुआ। मैं तड़प रही थी। “जीतेंद्र जी, अब बस… लंड डाल दो, चोद दो मुझे!” मगर वो तो मेरे स्तनों को मसने में, मेरी क्लीचेज में जीभ घुमाने में मस्त थे।
मैंने उनका तना हुआ लंड पकड़ा, अपनी चूत पर रखा और उनके चूतड़ों को दबाकर उन्हें अपनी तरफ़ खींचा। जीतेंद्र जी समझ गए। उन्होंने लंड मेरी चूत में ठेल दिया। उनका मोटा लंड धीरे-धीरे मेरी चूत में समा गया। वो बड़े आराम से मुझे चोदने लगे। मैंने ब्लाउज़ और ब्रा ऊपर करके स्तन बाहर निकाले। उन्होंने एक स्तन मुँह में लिया, चूसा, फिर दूसरे को। निप्पल पर जीभ फिराई, हल्के से काटा। मैं सिसकारियाँ ले रही थी, “आह… जीतेंद्र जी… और ज़ोर से…”
मुझे लगा कि मैं ज़्यादा देर नहीं टिक पाऊँगी। “जीतेंद्र जी, मैं झड़ने वाली हूँ… ज़ोर-ज़ोर से चोदो!” उन्होंने रफ़्तार बढ़ाई। उनकी हर धक्के में मेरा बदन हिल रहा था। एक मिनट में ही मैं झड़ गई। चूत से पानी निकला, मैंने जीतेंद्र जी को अपनी बाहों में जकड़ लिया। मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। इतने दिनों की प्यास आज बुझी थी।
वो मुझे चोदते रहे। करीब 40 मिनट बाद वो भी मेरे अंदर झड़ गए। उनके वीर्य की गर्म पिचकारियाँ मेरी चूत में महसूस हुईं। चोदकर वो मेरे पास लेट गए। हम धीरे-धीरे बातें करने लगे। आधे घंटे बाद जीतेंद्र जी बोले, “मैथिलि, एक बार और?” मैंने हँसकर कहा, “मैं तो खुद यही कहने वाली थी।” वो बोले, “तूने मुझे कई बार नंगा देखा, मगर मैंने तुझे कभी पूरी नंगी नहीं देखा। आज तुझे बिल्कुल नंगी देखना है।”
मैंने कहा, “अब तो मैं तुम्हारी हूँ, नंगी करना है तो खुद करो।” उन्होंने मेरा पेटीकोट खोला, ब्लाउज़ और ब्रा उतारी। मुझे खड़ा करके मेरे पूरे बदन को निहारा। उनकी उंगलियाँ मेरे स्तनों, कमर, चूतड़ों पर फिरने लगीं। फिर उन्होंने मुझे फिर से गद्दे पर लिटाया। मेरी चूत को चाटा, जीभ अंदर-बाहर की। मैं सिसकारियाँ ले रही थी, “जीतेंद्र जी… आह… और चाटो…” उन्होंने मेरे निप्पल्स को चूसा, मेरे पेट पर, जाँघों पर चुंबन किए।
फिर उन्होंने मुझे उल्टा किया। मेरे चूतड़ों को सहलाया, हल्के से थप्पड़ मारा। “मैथिलि, तेरी गाँड तो मस्त है।” मैंने कहा, “तो मार लो ना, जीतेंद्र जी।” उन्होंने तेल की शीशी निकाली, मेरी गुदा और अपने लंड पर लगाया। धीरे-धीरे लंड मेरी गाँड में डाला। थोड़ा दर्द हुआ, मगर मज़ा दोगुना था। वो धीरे-धीरे गाँड मारने लगे। मैं सिसकारियाँ ले रही थी, “आह… और ज़ोर से… चोदो मेरी गाँड को।”
करीब 20 मिनट बाद वो फिर झड़ गए। इस बार वीर्य मेरी गाँड में भरा। हम दोनों नंगे ही लेटे रहे। बारिश की आवाज़, मोमबत्ती की रोशनी, और हमारा गर्म बदन – वो रात मैं कभी नहीं भूल सकती। जीतेंद्र जी ने मुझे प्यार का असल मतलब सिखाया। मेरे जिस्म के हर अंग को उनके चुंबनों ने सहलाया।
सुबह होने से पहले वो पिताजी के कमरे में लौट गए। मगर उस रात के बाद हमारा रिश्ता बदल गया। जब भी मौका मिलता, हम चोरी-छुपे मिलते। कभी स्टोर में, कभी खेतों के पीछे। जीतेंद्र जी की हर छुअन मेरे लिए जन्नत थी। मैं जानती थी कि ये गलत है, मगर जिस्म की आग और दिल की प्यास ने मुझे बेकाबू कर दिया था।