शाम का समय था। सर्दियों की हल्की सिहरन महसूस हो रही थी। मैं और दीदी कुछ दिनों के लिए मायके आए हुए थे। भाई को बुखार था, और पूरे दिन से उसने कुछ नहीं खाया था। माँ-पापा रिश्तेदार के घर गए हुए थे, और घर में बस हम तीनों ही थे।
रात होते-होते बुखार थोड़ा उतरा, लेकिन भाई की कमजोरी और सुस्ती बनी रही। हम दोनों बहनें उसकी देखभाल में लगे थे। मैंने खाना बनाया लेकिन भाई को खाने का मन नहीं था।
रात के करीब 10 बजे उसकी नींद टूटी। धीरे से आँखें मलते हुए वो उठकर बोला, “दीदी, चाय पीने का मन कर रहा है।”
मैंने तुरंत किचन की तरफ दौड़ लगाई, लेकिन जैसे ही फ्रिज खोला, देखा कि दूध खत्म हो चुका था। रात के इस समय बाहर से दूध लाना नामुमकिन था।
मैंने चिंतित होकर दीदी की तरफ देखा, “दीदी, दूध तो खतम हो गया। अब चाय कैसे बनेगी?”
दीदी मुस्कुराई और बोली, “कोई बात नहीं, मैं कुछ करती हूँ।”
मैंने सोचा कि दीदी शायद कुछ और बनाने के बारे में सोच रही हैं। लेकिन अगले ही पल जो हुआ, उसने मुझे हैरान कर दिया।
दीदी ने धीरे से अपने कुर्ते के बटन खोले और एक कप उठाकर अपने मम्मे बाहर निकाल लिए। मैं हक्की-बक्की रह गई।
उसके बड़े, गोल और दूध से भरे मम्मे मेरे सामने थे। वो मम्मे को हल्के से दबाने लगी और सफेद गाढ़ा दूध कप में टपकने लगा।
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या देख रही हूँ।
दूध की गर्म धार सीधी कप में गिर रही थी। चुपचाप, मैं वहीं खड़ी होकर दीदी को देखती रही। मन में अजीब सा रोमांच हो रहा था।
कुछ ही देर में कप दूध से भर गया। दीदी ने कप को टेबल पर रखा और दूसरा मम्मा बाहर निकाल लिया। इस बार उसकी पकड़ थोड़ी मजबूत थी, जैसे वो जानबूझकर मुझे देख रही हो।
धीरे-धीरे, दूसरा कप भी भर गया। मैं पूरी तरह से मंत्रमुग्ध थी।
फिर दीदी ने मुस्कुराते हुए कहा, “बस हो गया! अब इससे चाय बनाएंगे।”
मैंने हल्के हाथों से कप उठाए और किचन में जाकर चाय चढ़ा दी। जब तक चाय बन रही थी, मैं बार-बार पीछे मुड़कर दीदी को देख रही थी। वो अब भी अपना मम्मा दबा रही थी, जैसे देखना चाहती हो कि क्या और दूध निकल सकता है।
कुछ ही देर में चाय बनकर तैयार थी।
मैंने चाय ट्रे में रखी और भाई के पास जाकर कप रख दिया।
पहला घूंट लेते ही भाई की आँखें चमक उठीं। “दीदी, आज तक ऐसी मस्त चाय नहीं पी है। एक और कप मिलेगा क्या?”
मैंने दूसरा कप उसकी तरफ बढ़ा दिया।
भाई ने बिस्किट के साथ दूसरा कप भी पी लिया। हँसकर बोला, “अरे दीदी, ये कौन सी चाय थी? क्या डाला था इसमें? रोज ऐसी ही बनाना!”
हम दोनों बहनें एक-दूसरे को देखकर हँसने लगीं।
बची हुई चाय का एक कप हमने आधा-आधा बांट लिया। हर घूंट के साथ मैं दीदी के मम्मों को याद कर रही थी। वो गरम चाय जैसे दीदी के मम्मों की गरमाहट मेरे अंदर उतर रही हो।
हमारी आँखों में एक अजीब सा राज था, जिसे कोई और समझ नहीं सकता था।
उस रात भाई चैन की नींद सोया। लेकिन मैं देर तक जागती रही, दीदी की ओर देखकर सोचती रही कि क्या ये पहली बार था या पहले भी उसने ऐसा किया था।