मेरा दोस्त और उसकी दोस्ती

हैलो दोस्तों, मेरा नाम आदित्य है—लोग मुझे आदि बुलाते हैं। मैं मध्य प्रदेश के एक छोटे से गाँव का हूँ। उम्र 22 साल, रंग साँवला, हाइट 5 फुट 10 इंच, बदन जिम में ढला हुआ—मांसपेशियाँ उभरी, सीना चौड़ा, और चेहरा ऐसा कि लड़कियाँ देखें तो नज़रें हटाएँ नहीं। पर मेरा मिजाज़—कबीर सिंह टाइप। गुस्सा ऐसा कि लोग पास आने से कतराते। एक बार स्कूल में किसी ने मेरी कॉपी छुई, तो मैंने उसका कॉलर पकड़कर दीवार से दे मारा। बस, फिर क्या—मेरा नाम गाँव में “गुंडा” हो गया। कोई दोस्त नहीं, कोई यार नहीं। लड़कियाँ मुझे ताड़तीं, पर मेरे रौब से डरतीं। मैं अकेला घूमता—बाइक पर गलियाँ नापता, चाय की टपरी पर सिगरेट सुलगाता। पर सच कहूँ, अंदर एक खालीपन था—कोई अपना नहीं था।

फिर आया दीपक। 12वीं क्लास में उसका एडमिशन हुआ। हाइट 5 फुट 4 इंच, गोरा-चिट्टा चेहरा, चिकना बदन, और मुस्कान ऐसी कि दिल पिघल जाए। बाल हल्के भूरे, आँखें चमकती, और स्टाइल कॉलेज के हीरो जैसा। मैंने उसे पहली बार देखा तो सोचा, “इसके तो 4-5 गर्लफ्रेंड होंगी। इतना चिकना, ऊपर से इतना कूल—कमाल है!” पर दीपक सबसे दूरी रखता। क्लास में वो सिर्फ़ मेरे पास बैठता। पहले दिन उसने मेरी कॉपी माँगी, “यार, नोट्स दे ना।” मैंने घूरा, फिर बिना बोले कॉपी सरका दी। वो हँसा, “तू तो बड़ा सख्त है!” मैंने कुछ नहीं कहा, पर उसकी हँसी में कुछ था—गर्मी, जो मुझे अंदर तक छू गई।

धीरे-धीरे हम बातें करने लगे। स्कूल के बाद वो मेरे साथ चाय की टपरी पर आता। मैं सिगरेट पीता, वो सिर्फ़ चाय। वो मेरे बारे में पूछता—मेरा गाँव, मेरा घर, मेरा गुस्सा। मैं कम बोलता, पर वो रुकता नहीं। कभी मेरे कंधे पर हाथ रखता, कभी बाइक के पीछे बैठकर कमर कसकर पकड़ता। मैं सोचता, “क्या बात है? इतना टच क्यों?” पर उसकी आँखों में दोस्ती थी—या शायद कुछ और, जो मैं समझ न सका। एक दिन उसने कहा, “यार, तू मेरा बेस्ट फ्रेंड है।” मैंने हँसकर कहा, “पागल है क्या? मेरे जैसे गुंडे का दोस्त?” वो बोला, “गुंडा नहीं, दिलवाला है तू।” मैं चुप रहा, पर दिल में कुछ हलचल सी हुई।

12वीं खत्म हुई। बोर्ड एग्ज़ाम का वक़्त आया। हमारे एग्ज़ाम गाँव से 35 किलोमीटर दूर शहर में थे। रोज़ बस का सफर, धूल भरी सड़कें, लंबा इंतज़ार—सिरदर्द था। मैंने दीपक से कहा, “क्या करें? रोज़ जाना मुश्किल है।” वो बोला, “मेरी मौसी वहाँ रहती हैं। उनके घर रुक लेते हैं, जब तक एग्ज़ाम हैं।” मैंने सोचा, “बढ़िया! फ्री का ठिकाना, खाना-पीना, पढ़ाई—सब सेट।” मैंने हामी भरी। “चल, पक्का। कब चलना है?” उसने कहा, “कल सुबह।” मैंने बैग पैक किया—दो जोड़ी कपड़े, किताबें, टूथब्रश, और जेब में 500 रुपये। दीपक ने कहा, “यार, मज़ा आएगा।” उसकी आँखों में चमक थी—मैंने इग्नोर किया।

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अगली सुबह गर्मी की दोपहर थी। आसमान में बादल, हल्की-हल्की फुहार। हम बस स्टैंड पहुँचे। खटारा बस में सीट मिली—तंग, पसीने की बू। दीपक मेरे पास बैठा। बस हिचकोले खाती, उसकी जाँघ मेरी जाँघ से टच होती—गर्म, नरम। मैंने खिड़की की ओर देखा, पर वो बार-बार मेरी तरफ ताकता। उसने कहा, “यार, तू इतना सीरियस क्यों रहता है?” मैंने कहा, “बस, आदत है।” वो हँसा, मेरे कंधे पर हाथ रखा। उसकी उंगलियाँ मेरी बाँह सहलाने लगीं—मुझे गुदगुदी सी हुई। मैंने सोचा, “क्या बात है? इतना प्यार?” पर दोस्ती की गर्मी में सब भूल गया।

शाम को हम शहर पहुँचे। मौसी का घर मोहल्ले में—दो मंज़िला, पुराना, पर साफ। लोहे का गेट, बाहर नीम का पेड़। मैंने बेल बजाई। थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला। सामने दीपक की मौसी—नाम रीना। उम्र 40 के करीब, पर बदन ऐसा कि 30 की लगें। फिगर 36-32-34—चूचियाँ भरी, कमर पतली, गांड गोल और उभरी। लाल साड़ी में वो किसी हसीना सी लग रही थीं। साड़ी टाइट, पल्लू हल्का नीचे—गहरी क्लीवेज चमक रही थी। होंठ रसीले, आँखें शरारती, और चेहरा गोरा—मानो चाँद टपक पड़ा हो। वो मुस्कुराईं, “आओ, दीपक! ये तुम्हारा दोस्त?” दीपक ने हँसकर कहा, “हाँ, मौसी। ये आदि, मेरा बेस्ट फ्रेंड।” मैंने नमस्ते की, पर नज़रें उनकी चूचियों पर अटकीं। मेरा लंड हल्का सख्त—मैंने बैग आगे कर छुपाया।

हम अंदर गए। घर में पुराने ज़माने की खुशबू—लकड़ी का फर्नीचर, दीवारों पर पुरानी तस्वीरें। मौसी आगे-आगे, उनकी गांड साड़ी में लहरा रही थी—हर कदम पर हिलती, जैसे बुला रही हो। मैं पीछे-पीछे, नज़रें टिकीं। दीपक ने मेरी तरफ देखा, हल्का सा हँसा। मैंने सोचा, “कमीना, सब समझता है।” मौसी ने हमें चाय दी—गर्म, अदरक वाली। कुछ मट्ठी भी। बातों में पता चला—उनके पति मर्चेंट नेवी में हैं, साल में 2-3 बार आते हैं। वो ज्यादातर अकेली रहती हैं। मैंने सोचा, “इतना माल, और अकेली? ऊपरवाले की माया!” मौसी ने हमें ऊपर का कमरा दिया—छोटा-सा, एक पलंग, पुराना पंखा, टेबल-कुर्सी, और खिड़की जिससे गलियारा दिखता। दीवार पर पुराना कैलेंडर, हवा में हल्की सी नमी। हमने बैग रखे, किताबें खोलीं।

पढ़ाई शुरू की। दीपक मेरे पास बैठा—बहुत पास। उसकी जाँघ मेरी जाँघ से सटती—गर्म, नरम। वो मेरी कॉपी में झाँकता, “यार, ये फॉर्मूला समझा।” मैं समझाता, पर ध्यान उसकी उंगलियों पर—मेरी बाँह सहलाती। मैं सोचता, “क्या बात है? इतना टच क्यों?” बाहर बारिश शुरू हो गई—ठंडी हवा, पंखे की खट-खट। दीपक की आँखें बार-बार मुझ पर—मैंने इग्नोर किया। वो मेरे कंधे पर सिर टिकाता, “यार, थक गया।” मैंने कहा, “पढ़, कमीने। एग्ज़ाम सर पर है।” वो हँसा, मेरी जाँघ पर हल्का सा थप्पड़ मारा। उसका स्पर्श—अजीब, पर गर्म।

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शाम हुई। मौसी ने नीचे बुलाया। डिनर तैयार था—दाल, रोटी, आलू-गोभी की सब्ज़ी, और गाजर का हलवा। मौसी ने साड़ी बदली—अब नीली, पर उतनी ही टाइट। चूचियाँ उभरी, गांड लहराती। वो परोस रही थीं, पल्लू बार-बार नीचे सरकता। मैं चुपके-चुपके ताड़ रहा था—उनकी क्लीवेज में पसीने की बूँदें, चमक रही थीं। दीपक ने मुझे कोहनी मारी, “क्या देख रहा, भाई?” मैंने हँसकर कहा, “कुछ नहीं, तू खा!” मौसी मुस्कुराईं—उनकी आँखों में शरारत। खाना खाकर हम ऊपर आए। मैं थक चुका था। पलंग पर लेटा, “दीपक, तू पढ़। मैं सो रहा।” वो बोला, “ठीक है, यार।” मैं नींद में डूब गया।

रात के 11 बजे होंगे। मुझे अजीब सा अहसास हुआ। जैसे कोई मेरा लंड सहला रहा हो—हल्के-हल्के, गर्म उंगलियाँ। मैंने आँखें खोलीं—अंधेरा, सिर्फ़ खिड़की से चाँद की रोशनी। दीपक मेरे पास बैठा था। मेरी पैंट की ज़िप खुली, उसका हाथ मेरे लंड पर। मेरा लंड 6.2 इंच का—काला, मोटा, नसें उभरी—पहले से कड़क। वो धीरे-धीरे मुँह नीचे ला रहा था, टोपा चूसने की कोशिश में। मैं चौंककर उठा, “ये क्या कर रहा है, दीपक?” मेरी आवाज़ में गुस्सा, पर कहीं हवस भी जाग रही थी।

वो घबरा गया, चेहरा लाल। “यार… मैं… एग्ज़ाम की टेंशन थी… सोचा…” वो हकलाया। मैंने उसे घूरा। गुस्सा तो था, पर कुछ और भी—कई महीने से चूत नहीं मिली थी। मेरा लंड आग बरस रहा था। मैंने सोचा, “इससे काम चला लूँ।” मैंने ठंडी आवाज़ में कहा, “तो बता तो देता! मैं क्या मना करता?” दीपक की आँखें चमकीं—वो मुस्कुराया, जैसे राहत मिली। मैंने पैंट नीचे सरकाई, लंड बाहर निकाला—कड़क, गर्म, टोपा चमकता। दीपक ने झट से मुँह में लिया। उसकी जीभ मेरे टोपे पर फिरी—गर्म, गीली। मैं सिसकारी, “आह… उफ्फ…” उसने लंड चूसना शुरू किया—धीरे-धीरे, फिर तेज़। जीभ से टोपा चाटा, लंड पूरा गीला। मैंने कहा, “क्या बात है, जो चुपके-चुपके चूस रहा था? बता के करता, दोनों को सुकून मिलता!”

वो 10 मिनट तक चूसता रहा—कभी टोपा चाटता, कभी पूरा लंड मुँह में। उसकी साँसें तेज़, मुँह गीला। मैंने उसके बाल पकड़े, मुँह में धक्के मारे—हल्के-हल्के। उसकी जीभ मेरे लंड की नसों पर फिरी—मज़ा दोगुना। मैंने कहा, “कहाँ सीखा ये सब, कमीने?” वो चूसते-चूसते हँसा, “बस, दिल से दिल तक।” मैं हँस पड़ा, पर जिस्म में आग लगी थी। आखिर मैं झड़ गया—गाढ़ा, गर्म माल उसके मुँह में। उसने सब चाट लिया, होंठ चमक रहे थे। मैं हाँफते हुए लेट गया।

दीपक मेरे सीने पर सिर रखकर लेटा। वो माफी माँगने लगा, “यार, गलती हो गई।” मैंने कहा, “अरे, इसमें क्या? मज़ा तो आया।” वो चुप रहा, फिर धीमी आवाज़ में बोला, “मैं माफी इसलिए नहीं माँग रहा। मैंने तुझे बताया नहीं… मैं गे हूँ।” मैं चौंककर उठा, “क्या बोल रहा है?” उसने कहा, “यही सच है। मैं तुझे पहले बताना चाहता था, पर डर था—दुनिया क्या कहेगी। गाँव में तो जान ले लेंगे।” मैंने उसे देखा—उसकी आँखें गीली। मैंने कहा, “मुझे शक तो था। इतना चिकना, फिर भी गर्लफ्रेंड नहीं? बनाता भी नहीं!” वो हँसा, “तू तो समझ गया था।” मैंने कहा, “तेरी बात मेरे साथ रहेगी। किसी को नहीं बताऊँगा।”

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इतने में मेरा लंड फिर खड़ा। रात का सन्नाटा, दीपक की गर्म साँसें—मेरा दिमाग़ हवस में डूबा। इंसान का लंड जब आग बने, और कोई प्यास बुझाने वाला मिले, तो बुद्धि कहाँ चलती है? मैंने उसका हाथ पकड़ा, अपने लंड पर रखा। “ले, मिटा मेरी प्यास।” उसने झट से लंड सहलाना शुरू किया—उंगलियाँ नरम, गर्म। मैंने कहा, “जब गे है, तो सिर्फ़ मुँह क्यों? गांड का सहारा ले, अपनी प्यास बुझा!” वो हिचकिचाया, “यार… मैंने कभी…” मैंने उसकी बात काटी। उसका लोअर खींचा—उसकी चिकनी गांड—गोरी, टाइट, गोल। छेद छोटा, गुलाबी। वो “ना-ना” करता रहा, पर मैं अब कहाँ मानने वाला? मैंने उसे पलंग पर पेट के बल लिटाया। उसकी गांड फैलाई—मेरा लंड आग बरस रहा था। मैंने डालने की कोशिश की, पर टाइट था। उसने कहा, “यार, पहली बार है… तेल ले आ!”

मैंने उसका लोअर पहना, किचन की ओर भागा। रात का सन्नाटा, घर अंधेरे में डूबा। सीढ़ियाँ उतरते वक़्त मेरे कदमों की आवाज़ गूँजी। किचन में घुसा—अंधेरा, सिर्फ़ फ्रिज की लाइट। मैंने अलमारी टटोली, सरसों का तेल मिला। जैसे ही मुड़ा, अजीब सी आवाज़ें सुनाई दीं—हल्की सिसकारियाँ, “आह… स्स…” जैसे कोई चूम रहा हो, या उससे ज़्यादा। आवाज़ मौसी के कमरे से आ रही थी। मेरा दिल धड़का—क्या था ये? मौसी अकेली थीं, फिर ये आवाज़ें? मेरा लंड और सख्त—तेल हाथ में था, पर मन मौसी के कमरे की ओर खिंचा। मैंने सोचा, “पहले दीपक का काम, फिर देखता हूँ।” लेकिन वो सिसकारियाँ—उफ्फ, मेरे जिस्म में आग लगा रही थीं।

अगला हिस्सा जल्दी…

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